चोटी की पकड़–29

एजाज की मधुर आवाज निकली। जहाज-भर के लोग, नीचे और ऊपर के, कान लगाए रहे। गाना शुरू हुआ।-


"हर एक बात प' कहते हो तुम कि तू क्या है,

कहो कि यह अंदाजेगुफ्तगू क्या है?

जला है जिस्म जहाँ, दिल भी जल गया होगा,

कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है?

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल,

जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है?"

लोगों पर सच्चा जादू चला। सभी ने दिल दे दिया, वही दिल जो हाथ से छूटकर मजबूती से हाथ पकड़ता है। 

छोटे-बड़े सभी उसके भक्त हो गए। 

कोयला-झोंकनेवाले एक झुक्की झोंककर नीचे से डेक पर चढ़ आए। श्रम को हल्का कर लिया। 

सोचा, वह कौन-सा स्वर है जो दिल पर अपनी पूरी-पूरी छाप लगा देता है? खड़े लोगों में क्षण-भर के लिए विषमता नहीं आई; किसी बड़प्पन के कारण या पैसा होने की वजह गायिका का कंठ इतना मधुर है, यह वे नहीं सोच सके; विरोध का क्षण ही मिट गया।

 उन पंक्तियों के लेखक महाकवि गालिब समय के सताए हुए और गानेवाली एजाज समय की संस्तुत, फिर भी दोनों में साम्य ! यह किसी अधिकार की बात न होगी। 

अधिकार से वस्तु, विषय या बात इतनी सुंदर नहीं बनती, ऐसी पूरी नहीं उतरती। यह वह अधिकार है जहाँ अधिकार ढीला है।

विलासी राजा एकटक उस सच्चे रूप और स्वर को देखते-समझते रहे। कुछ देर एजाज ने दम लिया। 

निगाह उठाई। भरा पेग उठाकर राजा साहब को दिया। खुद एक लौंग दबाई। दो कश खींचकर पीकदान में डाल दी और हारमोनियम संभाला।

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